सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में चल रहे मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) मामले की सुनवाई में मंगलवार को साफ कहा कि आधार कार्ड नागरिकता का प्रमाण नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि मतदाता सूची से नाम जोड़ना या हटाना चुनाव आयोग का अधिकार है।
सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि आधार अधिनियम की धारा 9 के मुताबिक, आधार को नागरिकता का अंतिम प्रमाण नहीं माना जा सकता, इसे अलग से जांचना जरूरी है। अदालत इस दलील से सहमत नहीं थी कि बिहार के लोगों के पास चुनाव आयोग द्वारा मांगे गए दस्तावेज नहीं हैं।
सबसे पहले अदालत यह तय करेगी कि क्या चुनाव आयोग को ऐसी सत्यापन प्रक्रिया चलाने का अधिकार है। अगर अधिकार नहीं है तो मामला खत्म, और अगर है, तो प्रक्रिया जारी रहेगी।
राजद सांसद मनोज झा की ओर से वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि इस प्रक्रिया से कई पात्र लोग सूची से बाहर हो जाएंगे, खासकर वे जो समय पर फॉर्म नहीं भर पाएंगे। उन्होंने आरोप लगाया कि पुराने मतदाता भी, जिनके पते नहीं बदले, फॉर्म न भरने पर सूची से हटा दिए जा रहे हैं।
अदालत ने बताया कि बिहार के 7.9 करोड़ मतदाताओं में से 7.24 करोड़ ने जवाब दिया, इसलिए "एक करोड़ नाम गायब" होने की बात सही नहीं लगती। अदालत ने इसे "विश्वास की कमी" का मामला बताया और चुनाव आयोग से सही आंकड़ों के साथ पेश होने को कहा।
चुनाव आयोग के वकील राकेश द्विवेदी ने कहा कि मसौदा सूची में कुछ गलतियां हो सकती हैं, लेकिन इन्हें सुधारा जाएगा। लगभग 6.5 करोड़ लोगों को दस्तावेज देने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि वे या उनके माता-पिता 2003 की सूची में थे।
कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने इस प्रक्रिया को "दुनिया का सबसे बड़ा मताधिकार विलोपन अभियान" कहा और दावा किया कि 65 लाख नाम हटाए गए हैं, जिसमें महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा है। उन्होंने चेतावनी दी कि बड़े पैमाने पर बहिष्कार पहले ही शुरू हो चुका है।
1 अगस्त को मसौदा सूची जारी हुई है और अंतिम सूची 30 सितंबर को आएगी। कई विपक्षी दलों और नागरिक संगठनों ने इस प्रक्रिया को अदालत में चुनौती दी है, क्योंकि उनका मानना है कि इससे करोड़ों लोग वोट देने के अधिकार से वंचित हो सकते हैं।
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