संत कबीर दास जी की जयंती आज, 11 जून 2025 को पूरे श्रद्धा भाव से मनाई जा रही है. कबीरदास एक महान संत, कवि और समाज सुधारक थे, जिन्होंने अपने दोहों के ज़रिए समाज में फैले आडंबर, जातिवाद और पाखंड पर कड़ा प्रहार किया. उनके विचार आज भी हमें प्रेम, करुणा और समानता की राह पर चलने की प्रेरणा देते हैं. कबीर की वाणी सिर्फ कविता नहीं, जीवन का दर्शन है. इस खास अवसर पर आइए उनके कुछ दोहे को याद करते हैं.
कबीर सिर्फ संत नहीं थे, वो एक विचार थे और आज, जब समाज धर्म, जाति और भाषा के नाम पर बंटा दिखता है, तब कबीर की वाणी और भी प्रासंगिक हो जाती है. कबीर जयंती मनाना सिर्फ उनके जन्म को याद करना नहीं है, बल्कि उन विचारों को फिर से जीना है, जो सदियों पहले उन्होंने बिना डरे कहे थे.

'कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर, ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर.'
सोचिए, आज किसी सोशल मीडिया पोस्ट पर भी इतनी निष्पक्षता मिलती है क्या? कबीर की बातों में न तलवार की धार थी, न ही कोई लोभ. फिर भी, राजा से लेकर रंक तक, ब्राह्मण से लेकर मांसाहारी तक, सब पर असर पड़ा. उनके दोहे तलवार नहीं, आइना थे. आज जब लोग धर्म के नाम पर एक-दूसरे को कुचल रहे हैं, तब कबीर का वो सवाल गूंजता है.
"पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय."
कबीर जयंती पर हम फूल चढ़ाते हैं, भाषण देते हैं, लेकिन क्या हम उनके उस प्रेम को जी पा रहे हैं जिसे वो 'ढाई आखर' में समेट गए? आज के युवाओं के लिए कबीर एक ट्रेंड नहीं, बल्कि ट्रांसफॉर्मेशन हैं. उनकी वाणी इंस्टाग्राम रील नहीं, लाइफ का रियल मैसेज है.
"चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय. दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय."
ये सिर्फ चक्की नहीं है, ये आज की सिस्टम है, जिसमें हर विचार, हर सवाल, हर संवेदना पीसी जा रही है। कबीर का रोना हमें झकझोरता है- कि तुम कुछ कह भी पा रहे हो, या बस पीसे जा रहे हो?
इस कबीर जयंती पर आइए, हम सिर्फ उनके दोहे न दोहराएं, बल्कि खुद से दो सवाल पूछें. क्या हम बिना भेदभाव के समाज में प्रेम फैला पा रहे हैं? क्या हम सच को सच कहने का साहस रखते हैं, जैसा कबीर ने किया? कबीरदास की जयंती पर यही सबसे बड़ा tribute होगा. जब हम उनकी तरह thought revolution को अपनाएं.
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