पिछले पांच हफ्तों में क्रिकेट दुनिया एक के बाद एक बड़े झटकों से हिल गई है. अलग-अलग फॉर्मैट, अलग-अलग देशों से, बड़े-बड़े नामों ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा कह दिया. शुरुआत हुई 7 मई को जब भारत के टेस्ट कप्तान रोहित शर्मा ने टेस्ट क्रिकेट को टाटा कर दिया. सिर्फ 5 दिन बाद, उनके पूर्व कप्तान और आइकन विराट कोहली ने भी यही फैसला लिया.
हालांकि इन रिटायरमेंट्स की आहट पहले से थी, फिर भी जब ये फैसले आधिकारिक हुए, तो क्रिकेट प्रेमियों के दिलों में खालीपन सा छा गया. जल्द ही ऑस्ट्रेलिया के ग्लेन मैक्सवेल ने वनडे क्रिकेट को बाय-बाय कहा ताकि वह 2026 में भारत-श्रीलंका में होने वाले टी20 वर्ल्ड कप पर फोकस कर सकें और फिर दक्षिण अफ्रीका के विकेटकीपर हेनरिक क्लासेन ने भी सफेद गेंद वाले फॉर्मैट्स को छोड़ने का फैसला कर लिया.
लेकिन सबसे चौंकाने वाला झटका तब लगा जब वेस्टइंडीज़ के विस्फोटक बल्लेबाज़ निकोलस पूरन ने भी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से किनारा कर लिया- वो भी सिर्फ 29 की उम्र में! पूरन का फैसला न सिर्फ अचानक था, बल्कि बेहद चिंताजनक भी, जब वह IPL 2025 में लखनऊ सुपर जायंट्स के लिए ताबड़तोड़ बल्लेबाज़ी कर रहे थे, तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि ये खिलाड़ी देश छोड़ने का मन बना चुका है. 61 वनडे, 106 टी20 इंटरनेशनल, वेस्टइंडीज़ के लिए सबसे ज्यादा टी20 रन (2,275 रन, स्ट्राइक रेट 136.39), कप्तानी का अनुभव, सब कुछ होने के बावजूद पूरन का इस तरह जाना एक बहुत बड़ी चेतावनी है.
इस फैसले ने न सिर्फ फैंस को हैरान किया, बल्कि ये भी दिखा दिया कि अब 20 ओवर की लीग्स का ग्लोबल पकड़ कितनी मजबूत हो चुकी है. खिलाड़ी आज इंटरनेशनल क्रिकेट से ज्यादा प्राइवेट लीग्स में पैसा और सम्मान देख रहे हैं। और इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि जब क्रिकेट ही कमाई का ज़रिया है, तो खिलाड़ी भी वही चुनेंगे जहां उन्हें सुरक्षा, पैसा और इज्जत मिले.
पूरन का जाना किसी एक कहानी का अंत नहीं, बल्कि एक बड़े ट्रेंड की शुरुआत हो सकता है. वेस्टइंडीज़ बोर्ड और खिलाड़ियों के बीच लंबे समय से भरोसे की कमी रही है. कई बेहतरीन खिलाड़ियों ने इसी वजह से देश छोड़ दिया था. दक्षिण अफ्रीका भी अंदरूनी मसलों से जूझता रहा है और उनके कई खिलाड़ी इंग्लैंड या अन्य देशों में खेलने चले गए.
सवाल ये नहीं है कि खिलाड़ी 'लालची' हैं, सवाल ये है कि क्या क्रिकेट बोर्ड आज के समय में उन्हें वो माहौल दे पा रहे हैं, जहां देश के लिए खेलने का जोश बना रहे? देशभक्ति और गर्व की बातें ठीक हैं, लेकिन सिर्फ वो जज़्बा किसी खिलाड़ी के परिवार का पेट नहीं भरता. पूरन का फैसला हमें आगाह करता है. कहीं ये क्रिकेट के उस दौर की शुरुआत तो नहीं जहां 'देश के लिए खेलना' अब पहली प्राथमिकता नहीं रह गई?