Rangoli history : भारत में दीपों का त्योहार दिवाली सिर्फ रोशनी और मिठास का पर्व नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की गहराई को दर्शाने वाला उत्सव है. इस दिन घरों को दीपों, फूलों और खासतौर पर रंगोली से सजाया जाता है. रंगोली बनाना एक सदियों पुरानी परंपरा है, जो न केवल सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि इसके पीछे गहन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी छिपा है. आइए जानें कि इस रंग-बिरंगी परंपरा की शुरुआत कब और कैसे हुई और इसका क्या महत्व है.
रंगोली की परंपरा इतनी प्राचीन है कि इसके प्रमाण वैदिक ग्रंथों में मिलते हैं. "रंगावली" या "रंगभूमि" जैसे शब्द प्राचीन धर्मशास्त्रों में पाए जाते हैं, जो किसी धार्मिक अनुष्ठान से पहले भूमि की शुद्धिकरण प्रक्रिया का हिस्सा थे. इन रंग-बिरंगे चित्रों का उद्देश्य केवल सजावट नहीं था, बल्कि यह एक पवित्र क्रिया थी, जिससे भूमि को यज्ञ या किसी शुभ कार्य के लिए तैयार किया जाता था. यह मान्यता थी कि इससे नकारात्मक ऊर्जाएं दूर होती हैं और दैवीय शक्तियों को आमंत्रित किया जाता है.
प्राचीन समय में रंगोली बनाने के लिए चावल का आटा, हल्दी, कुमकुम, फूलों की पंखुड़ियां और राख जैसे प्राकृतिक तत्वों का उपयोग किया जाता था. इनसे बनाई गई आकृतियां न केवल वातावरण को सुंदर बनाती थीं, बल्कि उसे शुद्ध और सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर भी करती थीं. इन आकृतियों को बड़े ही ध्यान, श्रद्धा और एकाग्रता से बनाया जाता था, जिससे वह एक तरह की ध्यान साधना का रूप भी ले लेती थीं.
हिंदू मान्यताओं के अनुसार, रंगोली को समृद्धि, सौभाग्य और शुभता का प्रतीक माना जाता है. विशेष रूप से दिवाली पर रंगोली इस विश्वास के साथ बनाई जाती है कि मां लक्ष्मी घर में पधारें और धन-धान्य से घर भर दें. इसलिए इसे मुख्यतः प्रवेश द्वार पर सजाया जाता है, ताकि घर में प्रवेश करने वाली सारी ऊर्जाएं शुद्ध और सकारात्मक हों.
किसी भी वैदिक यज्ञ या शुभ अनुष्ठान की शुरुआत से पहले स्थल की शुद्धि आवश्यक मानी जाती थी. रंगोली बनाना इस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था. गोल, चकोर या ज्यामितीय आकृतियां यज्ञ स्थल के चारों ओर बनाई जाती थीं, जो पूर्णता और संतुलन का प्रतीक होती थीं. नारद शिल्प शास्त्र जैसे ग्रंथों में इसका विस्तार से उल्लेख मिलता है, जहां रंगावली को विवाह, उपनयन, पूजा और अन्य धार्मिक अवसरों पर भूमि की सजावट के रूप में वर्णित किया गया है.
एक कथा के अनुसार, ऋषि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा ने वैदिक यज्ञों के लिए स्थल को पवित्र बनाने हेतु रंगोली बनाना आरंभ किया था. वहीं एक और फेमस लोककथा बताती है कि जब भगवान रामचंद्रजी 14 वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या लौटे, तो नगरवासियों ने पूरे शहर को दीयों और रंगोलियों से सजा दिया था. यही परंपरा आज दिवाली के रूप में जीवित है.
समय के साथ रंगोली की शैली और डिजाइन में बदलाव आया है, लेकिन इसका मूल भाव अब भी वही है – पवित्रता, स्वागत और सौंदर्य. आज रंगोली न केवल पारंपरिक अवसरों पर बल्कि प्रतियोगिताओं, स्कूलों और सामाजिक आयोजनों में भी बनाई जाती है. आधुनिक रंगोली में अब आर्टिस्टिक डिजाइनों, थीम-बेस्ड पैटर्न और विभिन्न रंगों का समावेश देखा जा सकता है, लेकिन इसकी जड़ें अब भी प्राचीन परंपराओं में ही हैं.