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सुप्रीम कोर्ट में बहस… राज्यपाल की शक्ति बनाम अदालत का अधिकार, आखिर बिलों पर किसकी चलेगी?

सुप्रीम कोर्ट में राज्यपाल और राष्ट्रपति को बिलों पर फैसला लेने की समयसीमा तय करने पर दिलचस्प बहस. सरकार बोली, ‘यह संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा के खिलाफ’, अदालत बोली, ‘कोई सिस्टम तो होना चाहिए’.

👤 Samachaar Desk 21 Aug 2025 02:12 PM

सुप्रीम कोर्ट में इन दिनों एक अहम मुद्दे पर बहस चल रही है, क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधानसभा से पारित बिलों पर फैसला लेने के लिए तय समयसीमा दी जानी चाहिए? यह बहस इसलिए खास है क्योंकि कई बार राज्यपाल बिलों पर लंबे समय तक फैसला नहीं लेते, जिससे विधायी प्रक्रिया प्रभावित होती है.

सरकार का पक्ष

गुरुवार को सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार का पक्ष रखते हुए संविधान के अनुच्छेद 200 का हवाला दिया. उन्होंने कहा कि इस अनुच्छेद के तहत राज्यपाल को व्यापक शक्तियां दी गई हैं. राज्यपाल संवैधानिक और राजनीतिक शिष्टता का पालन करते हुए अपने विवेक से किसी बिल पर निर्णय लेते हैं. उनके मुताबिक, राज्यपाल या राष्ट्रपति पर कोई समयसीमा थोपना संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा के खिलाफ है.

मेहता ने यह भी सवाल उठाया कि आखिर एक संवैधानिक संस्था (अदालत) किस आधार पर दूसरी समान संस्था (राज्यपाल/राष्ट्रपति) पर समयसीमा तय कर सकती है? उन्होंने तर्क दिया कि यदि किसी राज्यपाल ने किसी बिल पर निर्णय नहीं लिया है, तो उसका राजनीतिक समाधान मौजूद है. ऐसे में विधानसभा का प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से मुलाकात कर सकता है. उनका कहना था कि इस तरह की समस्याओं का हल राजनीतिक परिपक्वता से ही संभव है, न कि अदालत द्वारा समयसीमा तय करने से.

अदालत की आपत्ति

वहीं, अदालत का दृष्टिकोण कुछ अलग रहा. सुनवाई के दौरान जस्टिस नरसिम्हा ने टिप्पणी की कि मौजूदा स्थिति में दोनों पक्ष अतिवादी रुख अपना रहे हैं. उनका कहना था कि यदि कोई संवैधानिक संस्था अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर रही है, तो यह जरूरी है कि उसके समाधान के लिए एक प्रक्रिया तय की जाए.

मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने भी स्पष्ट किया कि अदालत संविधान का एक अभिन्न अंग है. ऐसे में यदि कोई संवैधानिक संस्था बिना किसी वैध कारण के काम नहीं कर रही है, तो अदालत चुप नहीं बैठ सकती. उन्होंने कहा कि “क्या अदालत यह कह दे कि हमारे हाथ बंधे हैं? हमें कुछ न कुछ निर्णय करना ही होगा.”

बहस के दौरान यह साफ हो गया कि अदालत सीधे तौर पर राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोई सख्त टाइमलाइन तय करने के पक्ष में नहीं है. लेकिन जजों ने यह भी संकेत दिया कि एक प्रक्रिया या सिस्टम जरूर होना चाहिए, जिससे विधानसभा से पारित बिलों के अटके रहने की स्थिति का समाधान किया जा सके.

यह मामला न केवल संवैधानिक व्याख्या से जुड़ा है, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली और संस्थाओं के बीच संतुलन के लिए भी बेहद अहम साबित हो सकता है.