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Janmashtami 2025: क्यों काटा जाता है आधी रात को डंठल वाला खीरा? जानें इस अनोखी परंपरा का रहस्य

जन्माष्टमी 2025 का पर्व 16 अगस्त को मनाया जाएगा. इस दिन आधी रात खीरा काटने की परंपरा श्रीकृष्ण के जन्म की प्रतीक मानी जाती है, जिसे नाल छेदन रस्म के रूप में निभाया जाता है.

👤 Samachaar Desk 13 Aug 2025 12:01 PM

कृष्ण जन्माष्टमी हिंदू धर्म का सबसे प्रमुख और पवित्र त्योहारों में से एक है. यह भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है. भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को यह पर्व बड़े ही धूमधाम और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है. इस साल जन्माष्टमी का पावन दिन शनिवार, 16 अगस्त 2025 को है.

मध्यरात्रि पूजा का महत्व

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, द्वापर युग में भगवान विष्णु ने अपने आठवें अवतार के रूप में रोहिणी नक्षत्र में, मध्यरात्रि 12 बजे मथुरा में जन्म लिया था. इसी कारण जन्माष्टमी पर पूजा का मुख्य समय रात का होता है. भक्त पूरे दिन व्रत रखते हैं और रात 12 बजे श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाते हैं.

खीरा काटने की अनोखी परंपरा

जन्माष्टमी की पूजा में एक खास रस्म निभाई जाती है. आधी रात डंठल वाला खीरा काटना. यह परंपरा सिर्फ सजावट या प्रतीक के लिए नहीं, बल्कि गहरे धार्मिक अर्थ लिए होती है. मान्यता है कि खीरे का डंठल भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय उनकी गर्भनाल का प्रतीक है.

नाल छेदन का प्रतीक

जैसे किसी बच्चे के जन्म के समय उसकी गर्भनाल को काटकर अलग किया जाता है, वैसे ही जन्माष्टमी की रात डंठल वाले खीरे को सिक्के से काटा जाता है. इसे नाल छेदन कहा जाता है. यह रस्म श्रीकृष्ण और माता देवकी को प्रतीकात्मक रूप से अलग करने का संकेत देती है.

पूजा में खीरे का महत्व

खीरे के डंठल को काटने के बाद, उसमें से प्रतीकात्मक रूप से ‘कन्हैया’ को बाहर निकाला जाता है और मूर्ति को झूले में विराजमान किया जाता है. इसके बाद आरती की जाती है और खीरे को पूजा में चढ़ाया जाता है.

प्रसाद के रूप में वितरण

पूजा संपन्न होने के बाद खीरे को प्रसाद स्वरूप भक्तों में बांटा जाता है. यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है और मान्यता है कि इससे घर में सुख-समृद्धि आती है और भगवान कृष्ण की कृपा बनी रहती है.

जन्माष्टमी केवल पूजा-अर्चना का पर्व नहीं, बल्कि परंपराओं और आस्था का अद्भुत संगम है. डंठल वाले खीरे की यह अनोखी परंपरा हमें याद दिलाती है कि त्योहारों का हर छोटा-सा रिवाज भी गहरे धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व से जुड़ा होता है.